
Hindi Poems by Vivek (विवेक की हिंदी कवितायेँ)
By Vivek Agarwal
इस पॉडकास्ट के माध्यम से मैं स्वरचित रचनाएँ और अपने प्रिय कवियों की कालजयी कवितायेँ प्रस्तुत कर रहा हूँ
Three times "Author Of The Month" on StoryMirror in 2021. Open to collaborating with music composers and singers. Write to me on HindiPoemsByVivek@gmail.com
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Hindi Poems by Vivek (विवेक की हिंदी कवितायेँ) Dec 30, 2022

इश्क़ दोबारा (Love Again)
एक किताब सा मैं जिसमें तू कविता सी समाई है,
कुछ ऐसे ज्यूँ जिस्म में रुह रहा करती है।
मेरी जीस्त के पन्ने पन्ने में तेरी ही रानाई है,
कुछ ऐसे ज्यूँ रगों में ख़ून की धारा बहा करती है।
एक मर्तबा पहले भी तूने थी ये किताब सजाई,
लिखकर अपनी उल्फत की खूबसूरत नज़्म।
नीश-ए-फ़िराक़ से घायल हुआ मेरा जिस्मोजां,
तेरे तग़ाफ़ुल से जब उजड़ी थी ज़िंदगी की बज़्म।
सूखी नहीं है अभी सुर्ख़ स्याही से लिखी ये इबारतें,
कहीं फ़िर से मौसम-ए-बाराँ में धुल के बह ना जायें।
ए'तिमाद-ए-हम-क़दमी की छतरी को थामे रखना,
शक-ओ-शुबह के छींटे तक इस बार पड़ ना पायें।
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ग़ज़ल - इश्क़ है (Ghazal - Ishq Hai)
तुम अकेले में अगर हो मुस्कुराते इश्क़ है।
महफ़िलों में भी अकेले गुनगुनाते इश्क़ है।
जब नज़र से दूर हो वो चैन दिल को ना मिले,
सामने जब वो पड़े नजरें चुराते इश्क़ है।
बेखबर तो है नहीं वो जानती हर बात है,
हाल कहते होंठ फिर भी थरथराते इश्क़ है।
ख़्वाब देखे जो खुली आँखों से तुमने रात दिन,
बंद आँखों में सितारे झिलमिलाते इश्क़ है।
हाथ उठते जब दुआ में माँगते उसकी ख़ुशी,
नूर उसके अक्स का दिल में सजाते इश्क़ है।
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शाइर - विवेक अग्रवाल 'अवि'
संगीत और गायन - रानू जैन

भजन - हरे कृष्णा हरे कृष्णा (Bhajan - Hare Krishna Hare Krishna)
बड़ा पावन है दिन आया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
ख़ुशी भी साथ में लाया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
मदन मोहन मुरारी की छवी लगती मुझे प्यारी,
तभी तो झूम कर गाया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
नहीं असली जगत में कुछ वही बस एक सच्चा है,
सभी कुछ कृष्ण की माया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
नहीं कुछ कामना बाकी तेरे चरणों में आ बैठा,
सभी कुछ है यहीं पाया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
सुनो विनती मेरी भगवन हमेशा साथ में रहना,
रहे 'अवि' पर तेरा साया हरे कृष्णा हरे कृष्णा।
श्रद्धा सहित
सुर और संगीत - डॉ सुभाष रस्तोगी
लेखन - विवेक अग्रवाल 'अवि'

आज़ादी के मायने (Azadi Ke Mayne)
ये आज़ादी मिले हमको हुए हैं साल पचहत्तर।
बड़ा अच्छा ये अवसर है जरा सोचें सभी मिलकर।
सही है क्या गलत है क्या मुनासिब क्या है वाजिब क्या।
आज़ादी का सही मतलब चलो समझें ज़रा बेहतर।
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ग़ज़ल - न सुकून है (Ghazal - Na Sukun Hai)
न सुकून है न ही चैन है; न ही नींद है न आराम है।
मेरी सुब्ह भी है थकी हुई; मेरी कसमसाती सी शाम है।
न ही मंज़िलें हैं निगाह में; न मक़ाम पड़ते हैं राह में,
ये कदम तो मेरे ही बढ़ रहे; कहीं और मेरी लगाम है।
कि बड़ी बुरी है वो नौकरी; जो ख़ुदी को ख़ुद से ही छीन ले,
यहाँ पिस रहा है वो आदमी; जो बना किसी का ग़ुलाम है।
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शाइर - विवेक अग्रवाल 'अवि'
आवाज़ - नरेश नरूला

ग़ज़ल- कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया
साहिर उस दौर के शायर थे जब शायरी ग़म-ए-जानाँ तक न सिमट ग़म-ए-दौराँ की बात करने लगी थी। इस ग़ज़ल का मतला भी ऐसा ही है जो न सिर्फ खुद के गम पर हालात के गम का ज़किर भी करता है। आज इसी ग़ज़ल में कुछ और अशआर जोड़ने की हिमाकत की है। मुलाइज़ा फरमाइयेगा।

ग़ज़ल - न तू ग़लत न मैं ग़लत (Ghazal - Na Tu Galat Na Mein Galat)
तू आग थी मैं आब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
तू ज़िन्दगी मैं ख़्वाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
उधर भी आग थी लगी इधर भी जोश था चढ़ा,
नया नया शबाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
जो सुर्ख़ प्यार का निशाँ तिरी निगाह में रोज था,
मिरे लिये गुलाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
ख़मोश लब तिरे रहे हमेशा उस सवाल पर,
वही तिरा जवाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
ख़ुशी व ग़म का बाँटना मिरे लिए वो प्यार था,
तिरे लिए हिसाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
दिलों में गाँठ क्यूँ पड़ी ये आज तक नहीं पता,
वो वक़्त ही ख़राब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
अलग अलग है रास्ता अलग अलग हैं मंज़िलें,
कोई न हम-रिकाब था न तू ग़लत न मैं ग़लत।
शाइर - विवेक अग्रवाल 'अवि'
सुर और संगीत - रणधीर सिंह

बस समय है प्यार का
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
सवाल ना जवाब ना, न वक़्त इंतिज़ार का।
क्यों छोड़ कर चले गए, ये आज तक नहीं पता।
मिली मुझे बड़ी सजा, मेरी भला थी क्या ख़ता।
कि आज भी जिगर में है, वो अक्स मेरे यार का।
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
मिले थे आखिरी दफा, न कुछ सुना न कुछ कहा।
नजर से बस नजर मिला, न अश्क़ भी कहीं बहा।
न देख तू यहाँ वहाँ, ये वक़्त है इज़्हार का।
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
लबों पे रख चला गया, निदा तेरे ही नाम की।
उसेक पल में पी गया, शराब लाख जाम की।
कि आज तक चढ़ा हुआ, नशा उसी ख़ुमार का।
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
पता नहीं मुझे तेरे, मिज़ाज का ख़िसाल का।
नसीब में है क्या लिखा, तेरे मेरे विसाल का।
नहीं ख़याल है मुझे, उसूल का वक़ार का।
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
ये जिंदगी का मोड़ वो, कि बस समय है प्यार का।
सवाल ना जवाब ना, न वक़्त इंतिज़ार का।

सच्ची स्वतंत्रता (Real Freedom)
सब कहते हैं हम अब स्वतंत्र हैं
पर सच कहूँ तो लगता नहीं
निज भाषा का तिरस्कार देखता हूँ
स्वदेशी पोशाकों को होटल, क्लब से
निष्काषित होते देखता हूँ
सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी में
मी लार्ड को टाई न पहनने के ऊपर
फटकार लगाते देखता हूँ
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प्रकृति का पाठ (Lessons from Nature)
आओ बच्चों आज तुमको, एक पाठ नया पढ़ाता हूँ।
प्रकृति हमको क्या सिखलाती, ये तुमको बतलाता हूँ।
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एक पाती कविता के नाम (A letter to my Poem)
कलम की कोख से जन्मी, मेरे मन की तू दुहिता है।
बड़ी निर्मल बड़ी निश्छल, बड़ी चंचल सी सरिता है॥
मेरे मन की व्यथा समझे, अकेलेपन की साथी है।
मेरा अस्तित्व है तुझसे, नहीं केवल तू कविता है॥
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ग़ज़ल - सफलता (Ghazal - Success)
नहीं घबरा के तुम हटना ये मंज़िल मिल ही जाएगी।
डटे रहना निरंतर तुम सफलता हाथ आएगी।
परीक्षाएं बहुत होती हैं दृढ़ निश्चय परखने को,
लगन सच्ची लगी तुमको तो मेहनत रंग लाएगी।
...
...
अगर हँसता ज़माना है तो चिंता तुम नहीं करना,
अभी हँसती है जो दुनिया वही सर पर बिठाएगी।
विवेक अग्रवाल 'अवि'
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ग़ज़ल – पैसा (Ghazal - Paisa)
कड़ी मेहनत बड़ी मुद्दत लगे पैसा कमाने में।
नहीं लगता ज़रा सा वक़्त पैसे को गँवाने में।
बड़ा आसान है कहना कि पैसा ही नहीं सब कुछ,
बिना पैसे नहीं मिलता यहाँ कुछ भी ज़माने में।
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बड़ी ताकत है पैसे में सभी पर ये पड़े भारी,
अदालत में चले पैसा यही चलता है थाने में।
अमीरी के सभी साथी गरीबी बस अकेली है,
भरी जेबें ज़रूरी है सभी रिश्ते निभाने में।
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विक्रमादित्य के नवरत्न (Nine Jewels of Vikramaditya)
आज सुनाता कथा पुरानी, जब सोने की चिड़िया भारत था।
सुख समृद्धि से सज्जित, स्वर्ण-भूमि में सबका स्वागत था।
अमरावती से सुन्दर नगरी, जहाँ महाकाल का धाम था।
समस्त विश्व का केंद्र थी, उज्जयिनी जिसका नाम था।
इंद्र से भी वैभवशाली, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य सम्राट थे।
चहुँ ओर फैला था कीर्ति सौरभ, गौरव से उन्नत ललाट थे।
स्वर्ण रजत मोती माणिक, धन धान्य से भरे थे राजकोष।
पर वो अनमोल रतन कौन थे, जो देते सच्चा परितोष।
जौहरी राजन को पहचान थी, की धन से बड़ा है ज्ञान।
सभा में उनकी नवरत्न थे, सब एक से बढ़ एक महान।
महाराज विक्रमादित्य के नव रत्नों के गुणों के बारे में जानने के लिए यह कविता अवश्य सुनें
To know about the specialties of each of the nine jewels, listen to this poem.
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ग़ज़ल - बस क़िस्से और कहानी में (Ghazal - Bas Kisse Aur Kahani Mein)
घर में सजते चाँद सितारे, बस क़िस्से और कहानी में।
सोने चाँदी के गुब्बारे, बस क़िस्से और कहानी में।
रोज़ बिखरते ख़्वाब यहाँ पर, टूटे दिल भी हमने देखे,
सच होते हैं सपने सारे, बस क़िस्से और कहानी में।
नफ़रत झूठ फ़रेब दिखा है, इस ज़ालिम दुनिया में अपनी,
सभी लोग सच्चे और प्यारे, बस क़िस्से और कहानी में।
ज़ुल्म सितम दहशत है फैली, नेकी कोने में बैठी है,
जीते अच्छा बुरा ही हारे, बस क़िस्से और कहानी में।
शुक्रगुज़ारी भूल गए सब, ख़ुद-ग़रज़ी फ़ितरत है सबकी,
अपने सारे क़र्ज़ उतारे, बस क़िस्से और कहानी में।
- विवेक अग्रवाल 'अवि'
(बहर-ए-मीर)
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VIDEO VERSION - बातें दिल की
एक ग़ज़ल लिखी है चन्दा पर,
छत पर आके पढ़ लेना।
है तेरी याद में गाया नगमा,
जब हवा बहे तो सुन लेना।
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हिंदी (Hindi)
बड़ी पुत्री है संस्कृत की सरल भाषा तथा बोली।
निरंतर सीखती रहती सभी से बन के हमजोली॥
अनेकों रूप लेकर भी बड़ी मीठी है अलबेली।
भले अवधी या ब्रजभाषा खड़ी बोली या बुन्देली॥
ये जयशंकर महादेवी निराला जी की कविता है।
मधुर मोहक सरस सुन्दर चपल चंचल सी सरिता है॥
..
..
हमें सर्वोच्च दुनिया में अगर भारत बनाना है।
तो सोतों को जगाना है व हिंदी को बढ़ाना है॥
चलो हिंदी दिवस पर सब प्रतिज्ञा आज करते हैं।
कि भारत देश उपवन में छटा हिंदी की भरते हैं॥
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VIDEO VERSION - ग़ज़ल - वो जो ज़िन्दगी थी मेरी कभी (Ghazal - Wo Jo Zindagi Thi Meri Kabhi)
This is the video version of my latest Ghazal, specially made for Spotify audiences.

परिवार का चूल्हा (Pariwar Ka Chulha)
परिवार का चूल्हा,
मात्र प्रेम की अग्नि से नहीं चलता,
ईंधन भी माँगता है।
कर्तव्य की लकड़ियाँ आवश्यक हैं,
चूल्हे के जलते रहने के लिए।
कभी कभी त्याग का घी-तेल,
भी डालना होता है,
और व्यवहारिकता की फुँकनी से,
समझौते की हवा भी फूँकनी होती है।
असुविधाओं का धुँआ सहन करते हुए।
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ब्रह्म-ज्ञान (Brahm-Gyaan)
इस कविता में आत्मा के अजर अमर स्वरुप का वर्णन कर उसका अंतिम लक्ष्य ब्रह्म प्राप्ति बता कर उसके तीन अलग अलग मार्गों की परिचर्चा की गयी है। यही जीवन का सबसे बड़ा रहस्य है और यही सबसे बड़ा ज्ञान है। इसीलिए इसे ब्रह्मज्ञान भी कहा गया है
आओ चलो एक गहरा राज तुम सबको बतलाता हूँ।
जीवन का ये सत्य शाश्वत आज तुम्हें समझाता हूँ।
पञ्च तत्व से बनी ये काया तन अपना ये नश्वर है।
तो क्यूँ इससे मोह करें जब क्षणभंगुर ये नाता है।
Full Poem in Audio Format ....
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समर्पण (Samarpann)
मुझे मोक्ष मत देना मोहन,
मत करना मुक्ति मार्ग प्रशस्त।
संध्या की जब बेला आये,
और हो जीवन का सूर्य अस्त॥
नहीं कामना वैकुण्ठ की मुझको,
न चाहूँ इंद्र का सिंहासन।
सम्पूर्ण सृष्टि में नहीं बना कुछ,
मेरी भारत भूमि सा पावन॥
श्वेत किरीट शोभित मस्तक पर,
करे पयोधि पद-प्रक्षालन।
सप्तसिंधु से सिंचित ये भूमि,
सर्वोच्च सदा से रही सनातन॥
इस पुण्य भूमि में क्रीड़ा करने,
ईश्वर स्वयं मनुज बन आते।
सौभाग्य यहाँ आने का पाकर,
यक्ष देव किन्नर इठलाते॥
बार बार लूँ जन्म यहीं पर,
बार बार यहीं मर-मिट जाऊँ।
समिधा बन इस पवित्र यज्ञ में,
हर जीवन सार्थक कर पाऊँ॥
मुझे लोभ नहीं मुझे मोह नहीं,
ये भक्ति और समर्पण है।
मातृभूमि के पावन चरणों में,
अपना सब कुछ अर्पण है॥
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'

मेरे अल्फ़ाज़ और मित्रों की आवाज़ (My words & Friends' voice)
आज की इस विशेष प्रस्तुति में मेरी कविताओं को आवाज़ दी है मेरे दो अज़ीज़ साथियों नरेश कुमार नरूला जी और वाचस्पति पांडेय जी ने।
कवितायेँ हैं
१ - मृगतृष्णा
२ - मैं प्रलय हूँ
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ग़ज़ल - वो जो ज़िन्दगी थी मेरी कभी (Ghazal - Wo Jo Zindagi Thi Meri Kabhi)
वो जो ज़िन्दगी थी मेरी कभी; वो जो पहला पहला ख़ुमार था।
मुझे ज़िन्दगी में नहीं मिला; मेरी ज़िन्दगी का जो प्यार था।
ये जो अश्क़ अपने ही पी रहा; ये जो क़िस्त क़िस्त में जी रहा,
मैं चुका रहा हूँ वो आज भी; जो तेरा पुराना उधार था।
मेरी ज़िन्दगी का उसूल है; जो तुझे ख़ुशी दे क़ुबूल है,
क्यूँ शिकायतें मेरे दिल में हों; न कभी भी कोई क़रार था।
जो नसीब में है लिखा नहीं; मुझे ख्वाब कोई दिखा नहीं,
मैं अभी भी चैन से जी रहा; मैं तभी भी शुक्र-गुज़ार था।
मेरी ज़ीस्त में जो ख़ुशी दिखी; वो भी नाम तेरे ही कर लिखी,
तू भी ग़म तेरे मुझे दे ज़रा; मैं हिसाब में हुशियार था।
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Lyrics - Vivek Agarwal 'Avi'
Music and Vocals - Ranu Jain

ट्रिक और ट्रीट? (Trick or Treat)
ट्रिक और ट्रीट?
मैं मूक स्तब्ध दरवाजे पर खड़ा था,
सामने बच्चों का एक झुण्ड अड़ा था।
कोई भूत कोई चुड़ैल कोई सुपर हीरो बना हुआ,
पूरे आत्मविश्वास के साथ द्वार पर तना हुआ।
एक एक कर मैंने सबके चेहरों को निहारा,
कोई पापा की परी कोई माँ का राजदुलारा।
कोई ड्रैकुला बना लाल दाँत दिखा रहा था,
तो कोई हैरीपॉटर बन स्पेल्स सिखा रहा था।
ऊँचा नुकीला हैट पहने एक कन्या विच बनी थी,
और इलास्टी गर्ल की आयरन मैन से ठनी थी।
ट्रिक और ट्रीट?
मुझे मूक निष्क्रिय देख बच्चों ने फ़िर दोहराया,
और जोरों से हाथ में थामे डब्बे को खनकाया।
मैं भी अपनी सम्मोहनावस्था से बाहर आया,
और सब बच्चों को देख थोड़ा मुस्कुराया।
अरे ये सब क्या है, क्या सोसाइटी में कोई आयोजन है,
और क्या इस फैंसी ड्रेस कम्पटीशन के बाद भोजन है?
मुझे मूढ़ मति मान बच्चे मिल कर खिलखिलाये,
इट इस हैलोवीन अंकल सब साथ मुझे समझाये।
आज के दिन इसी तरह के कॉसट्युम पहनते हैं,
और घर घर जा कर कैंडी चॉकलेट इकठ्ठा करते हैं।
ट्रिक और ट्रीट?
यकायक बचपन की एक मीठी याद मन में उभर आई,
रामलीला में कितनी ही बार मैंने अंगद की भूमिका निभाई।
मुँह लाल कर गदा हाथ ले जब पाँव जोर से धरता था,
जय श्री राम के उच्च नाद से पूरा हॉल धमकता था।
गली गली हर नुक्कड़ पर सुन्दर झाँकी सजती थी,
जय गोविंदा जय गोपाला की मीठी धुन भी बजती थी।
घर घर सबसे चंदा लेने होली पर हम भी जाते थे,
हफ़्तों पहले से रंग गुलाल की आँधी खूब उड़ाते थे।
संक्रांत पर कितनी रंग बिरंगी पतंग उड़ाया करते थे,
हर तीज को आँगन के झूलों पर पींगे ऊंची भरते थे।
ट्रिक और ट्रीट?
एक बार फिर बच्चों ने किया ये उद्घोष मेरे द्वार,
क्यूँकि मुझे पुनः खींच ले गया था यादों का संसार।
सोचा कि ट्रिक बोल दूँ और देखूँ ये क्या करते हैं,
फिर सोचा कोई अच्छी ट्रीट दे सबको खुश रखते हैं।
हम तो चंदा न देनों वालों को अच्छा पाठ पढ़ाते थे,
कुछ न कुछ घर से उठा कर होली में डाल जलाते थे।
चॉकलेट का पूरा डिब्बा बच्चों के बैग में हमने डाला।
बाय बोल के सब बच्चों को बंद किया फिर घर का ताला।
मन ही मन मैं सोच रहा था कैसे उत्सव बदल गए हैं,
उमंग ढूँढ़ते अपने बच्चे कुछ नयी राहों पर निकल गए हैं।
ट्रिक और ट्रीट?
आखिर अपने समाज के लिए क्या हैं ये नए त्यौहार,
बगिया महकाते नए फूल या मूल फसल को खाती खरपतवार?
किसी भी त्यौहार पर हँसते मुस्कुराते बच्चे अच्छे लगते हैं,
पर क्या ये नए त्यौहार हमारे समाज में सच्चे लगते हैं?
त्यौहार वो कड़ी हैं जो बच्चों को स्वयं की सभ्यता से जोड़ते हैं,
उल्लास और उमंग से नवीन को पुरातन की दिशा में मोड़ते हैं।
आज त्यौहार बदलेंगे तो कल आदर्श विश्वास और मूल्य भी बदलेंगे,
और अगर मूलभूत सिद्धांत ही बदल जायेंगे तो क्या हम हम रहेंगे?
किसी दूसरे पर आक्षेप नहीं मात्र अपना सहेजने की अपेक्षा है,
क्यूँकि ये तो सच है कि आज भारत में भारत की ही उपेक्षा है।
अब आप ही निर्धारित करें कि हैलोवीन सावर है या स्वीट,
ट्रिक और ट्रीट?
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'

दीपदान (DeepDaan)
देवालय में बैठा बैठा मैं मन में करता ध्यान।
शुभ दिन आया मैं करूँ दीप कौन सा दान।
मिटटी के दीपक क्षणभंगुर और छोटी सी ज्योति।
बड़ी क्षीण सी रौशनी बस पल दो पल की होती।
मन में इच्छा बड़ी प्रबल दुर्लभ हो मेरा दान।
सारे व्यक्ति देख करें बस मेरा ही गुण गान।
इस नगर में हर व्यक्ति के मुख पर हो मेरा नाम।
इसी सोच में डूबा बैठा आखिर क्या करूँ मैं काम।
सोचा चाँदी की चौकी पर सोने का एक दीप सजाऊँ।
साथ में माणिक मोती माला प्रतिमा पर चढ़वाऊँ।
दीपदान के उत्सव पर क्यों ना छप्पन भोग लगाऊँ।
बाँट प्रसाद निर्धन लोगों में मन ही मन इतराऊँ।
इसी विचार में डूबा था बस बैठे बैठे आँख लगी।
एक प्रकाश सा हुआ अचानक जैसे कोई जोत जगी।
मेरे मन-मानस मंदिर में गूँज उठा एक दिव्य नाद।
सुन अलौकिक ध्वनि को मिटने लगे मेरे सभी विषाद।
स्वर्णदीप का क्या करे वो जिसने स्वर्ण-लंका ठुकराई।
चाँदी-चौकी पर वो क्या बैठे जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि समाई।
विश्वनाथ की क्षुधा न मांगे छप्पन भोग से सज्जित थाल।
श्रद्धा प्रेम से जो भी अर्पण भेंट वही सुन्दर विशाल।
चक्षु मेरे भी खुल गए सुन सुन्दर सार्थक सु-उपदेश।
ज्यूँ तिमिर में डूबे नभ में हो सूर्य का औचक प्रवेश।
अब सोच रहा मैं क्या दूँ ऐसा जो सबका उद्धार हो।
मेरा मन भी जो शुद्ध बने शेष न कोई विकार हो।
बहुत सोच निष्कर्ष निकाला आज दीप मैं दूँगा पाँच।
जो आज तक रखे जलाये देकर मन की घृत और आँच।
पञ्च-दीप ये अब तक मेरे मन मानस में जलते आये।
मार्गद्रष्टा बन कर मुझको निज जीवन का पथ दिखलाये।
प्रथम दीप है लोभ का जो मेरे मन में जलता है।
चाहे जितना मैं पा जाऊँ मुझको कम ही लगता है।
स्वीकार करो प्रभु प्रथम दीप मुझको अपना सेवक मान।
अब से जो भी प्राप्त करूँगा मानूँगा तेरा वरदान।
क्रोध जगत में ऐसी ज्वाला जो अपनों को अधिक जलाती है।
सबका जीवन करती दुष्कर स्वयं को भी बहुत सताती है।
क्रोध दीप है अगला जिसको आज मैं अर्पण करता हूँ।
शांत चित्त हो यही कामना मैं तुझे समर्पण करता हूँ।
अपने सुख की छोड़ कामना दूजे के सुख से जलता हूँ।
औरों का वैभव देख देख क्यों मैं दुःख में गलता हूँ।
ईर्ष्या जिस भी हृदय में रहती चैन कभी न आता है।
स्वीकार करो ये दीप तीसरा इससे न मेरा अब नाता है।
मेधा ज्ञान शक्ति वैभव आप ही हैं इस सबके दाता।
हर प्राणी इस जग में सब कुछ प्रभु आप ही से पाता।
मैं अज्ञानी अहंकार में स्वयं को समझा इनका कारण।
सौंप आज ये चौथा दीपक मैं करता निज गर्व-निवारण।
मात पिता पत्नी संतानें सम्बन्ध हमारे कितने होते।
विरह-विषाद में जीवन कटता जब हम किसी को खोते।
सबसे कठिन है तजना इसको प्रभु मुझे चाहिए शक्ति।
तज कर आज ये मोह का दीपक मैं माँगू तेरी भक्ति।
पाँच दीप मैं अर्पण करता तेरे चरणों का करके ध्यान।
कृपा करो मुझ पर तुम इतनी स्वीकार करो ये दीपदान।
अब जीवन को राह दिखलायें संतोष श्रद्धा भक्ति ज्ञान।
नव दीपक आलोकित हों मन में ऐसा मुझको दो वरदान।
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'

ग़ज़ल - नियामतें जो मिली (Ghazal - Niyamaten Jo Mili)
नियामतें जो मिली शुक्र सुब्ह शाम करें।
कि ख़्वाहिशों को कभी भी न बे-लगाम करें।
वो मुस्कुरा के हैं पूछे कि हाल कैसा है,
सजा के झूठ लबों पर दुआ सलाम करें।
सजा रखे थे जो अरमां लुटा दिए तुम पर,
बचे हुए हैं ये सपने कहो तमाम करें।
ख़ता नहीं थी हमारी पता नहीं तुझको,
तुझे यकीं जो दिलाये वो कैसा काम करें।
बिकी हुई है अदालत जो ठीक दो कीमत,
चलो कहीं से गवाहों का इंतिज़ाम करें।
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सुर और संगीत - साधना रस्तोगी
शायरी - विवेक अग्रवाल 'अवि'
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अपना भारत - एक बाल गीत (Apna Bharat - A Children Song)
भारत माता के हम बच्चे,
सबसे प्यारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
भिन्न भिन्न भोजन हैं अपने,
भिन्न भिन्न है अपनी बोली।
भिन्न भिन्न उत्सव हैं अपने,
ओणम बीहू पोंगल होली॥
भिन्न भिन्न इन त्योहारों ने,
खूब सँवारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
भारत माता के हम बच्चे,
सबसे प्यारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
भिन्न भिन्न पोशाकें अपनी,
भिन्न भिन्न हैं मौसम अपने।
भिन्न भिन्न परिवेश है अपना,
भिन्न भिन्न हैं अपने सपने॥
जब जब विपदा आन पड़ी तब,
बना सहारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
भारत माता के हम बच्चे,
सबसे प्यारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
अपना देश है प्यारी बगिया,
भिन्न भिन्न से वृक्ष सजे हैं।
भिन्न भिन्न से पक्षी चहकें,
कितने मीठे राग बजे हैं॥
भिन्न भिन्न सुन्दर फूलों ने,
खूब निखारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
भारत माता के हम बच्चे,
सबसे प्यारा अपना भारत।
दूर दूर तक देखा जग में,
सबसे न्यारा अपना भारत॥
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'
विधा - १६ मात्रिक गीत

रास लीला - रूपमाला छंद
प्रथम सर्ग
रास लीला की कथा को, मैं सुनाता आज।
ध्यान से सुन लो मनोहर, गूढ़ है ये राज॥
पुण्य वृन्दावन हमारा, प्रेम पावन धाम।
रात को निधि-वन पधारें, रोज श्यामा श्याम॥
दिव्य दर्शन दें प्रभु हर, पूर्णिमा की रात।
मान लो मेरा कहा ये, सत्य है यह बात॥
पेड़-पौधे पुष्प-पत्ते, झूमते मनमीत।
मोर कोयल मिल सुनाते, प्रेम रस के गीत॥
जीव-जंतु भी करे हैँ, हर्ष से गुण-गान।
तितलियाँ मदहोश होतीं, प्रेम रस कर पान॥
मुस्कुराता चाँद नभ में, चाँदनी हर ओर।
हैं सुगन्धित सब दिशायें, हर्ष का ना छोर॥
प्रेयसी राधा पुकारे, प्रेम से जब नाम।
कृष्ण को आना पड़ेगा, छोड़ सारे काम॥
कृष्ण-राधा का करें मिल, सब सखी श्रृंगार।
ज्ञान किसको चाहिए जब, प्यार ही आधार॥
पीत वस्त्रों में सुशोभित, मोर पंखी माथ।
हैं कमल से नेत्र सुन्दर, बाँसुरी है हाथ॥
सुंदरी राधा सजी हैं, लाल नीले वस्त्र।
हैं कटीले नैन उनके, शक्तिशाली शस्त्र॥
रूप अद्भुत है दमकता, स्वर्ण सा हर अंग।
रास लीला सुख उठायें, श्याम श्यामा संग॥
गीत मंगल गा रहे सब, गोप गोपी साथ।
झूम कर नाचें सभी ले, हाथ ले कर हाथ॥
पुण्य लाखों जो किये थे, तो मिली ये शाम।
गोपिका राधा लगे है, गोप में हैं श्याम॥
हैं अचंभित देवता सब, देख अध्भुत खेल।
हैं हजारों श्याम गोपी, दिव्य है यह मेल॥
रातरानी है महकती, मस्त मादक गंध।
जन्म-जन्मों तक रहेगा, आज का गठ-बंध॥
बाजती पायल छमाछम, बाजते करताल।
नृत्य करती गोपियाँ सब, नाचते गोपाल॥
रख अधर वंशी बजायी, छेड़ मीठी तान।
लोक लज्जा छोड़ राधा, नृत्य करती गान॥
रूठती राधा मनाते, कृष्ण बारम्बार।
खिलखिलाती गोपियाँ भी, देख ये मनुहार॥
हार कर भी जीत जायें, प्रेम का यह खेल।
तन भले दो एक मन पर, है अनूठा मेल॥
रात बीती भोर आयी, जागते गोपाल।
रात भर क्रीड़ा चली है, नैन लगते लाल॥
रास लीला की कहानी, रूपमाला छंद।
सुन रहे सब मुग्ध-मोहित, छा गया आनंद॥
द्वितीय सर्ग
गौर से सोचो नहीं ये, रास लीला मात्र।
रास है संसार सारा, हम सभी हैं पात्र॥
बन वियोगी राह देखें, कब मिलन का योग।
भूख दर्शन की हृदय में, प्रेम का यह रोग॥
हम अभी बिछड़े हुए हैं, दूर हमसे श्याम।
बात मेरी मान लो तुम, बस करो यह काम॥
है बड़ा भगवान से भी, दिव्य उनका नाम।
नाम जप लो नित्य उनका, आ मिलेंगे श्याम॥
मोह-माया जग है सारा, मात्र सच्चा नाम।
नाम उसका जो पुकारा, सिद्ध सारे काम॥
राम कह लो या कहो तुम, कृष्ण उसका नाम।
तुम मधूसूदन पुकारो, या कहो घनश्याम॥
देवकी नंदन वही तो, है यशोदा लाल।
नाम माखनचोर भी है, और है गोपाल॥
कंस हन्ता भी वही है, नंदलाला श्याम।
वासुदेवा कृष्ण पावन, दिव्य सारे नाम॥
नाम गज ने जब पुकारा, आ गए भगवान।
नाम मन में तू बसा ले, कर हरी का ध्यान॥
कल्पना से मात्र जिसने, है रचा संसार।
है जगत स्वामी वही है, सर्व पालनहार॥
मंझधारा में पड़े हम, वो कराता पार।
बस वही सर्वोच्च शाश्वत, सत्य का आधार॥
याद गीता पाठ हो तो, कर्म पर दो ध्यान।
सुख मिले या दुख मिले है, जिंदगी आसान॥
कर समर्पित बस उसी को, हम करें हर कर्म।
ना निराशा दम्भ हो तब, ज्ञान गीता मर्म॥
हम रहें निष्काम तो फिर, द्वेष ना अनुराग।
वाहवाही ना कमायी, ना कमाया दाग॥
जब सभी उसका जगत में, गर्व की क्या बात।
हर समय बस ध्यान उसका, भोर हो या रात॥
मन-वचन-धन-तन हमारा, सब समर्पित आज।
भक्तवत्सल आप रखना, अब हमारी लाज॥
मार्गदर्शन आपका बस, हो हमारे साथ।
जब कभी जाएँ भटक तो, थाम लेना हाथ॥
मन बसे बांके बिहारी, श्वास में बस श्याम।
और कुछ ना चाहिए अब, मिल गया विश्राम॥
जानता कुछ भी नहीं मैं, मैं नहीं विद्वान।
हूँ पड़ा चरणों में आ के, कर कृपा भगवान॥
है भरोसा श्याम पर अब, है मिलन की आस।
मन अगर निश्छल हमारा, कृष्ण करते वास॥
प्रेम की ही भूख उसको, प्रेम की ही प्यास।
प्रेम की अभिव्यक्ति है, दिव्य क्रीड़ा रास॥
श्रद्धा सहित समर्पित
विवेक अग्रवाल
(बोलो बांके बिहारी लाल की जय)

ग़ज़ल – घरों के साथ जीवन भी सजाते हैं दिवाली पर
घरों के साथ जीवन भी सजाते हैं दिवाली पर।
नयी उम्मीद के दीपक जलाते हैं दिवाली पर।
चमकते हैं ये घर आँगन ज़रा झाड़ू लगा अंदर,
ये जाले बदगुमानी के हटाते हैं दिवाली पर।
जुबां मीठी बने सबकी न कड़वे बोल हम बोलें,
बना ऐसी मिठाई इक खिलाते हैं दिवाली पर।
प्रकाशित मन करे ऐसा जलाओ दीप हर घर में,
दिलों से आज अँधियारा मिटाते हैं दिवाली पर।
लबों पर मुस्कुराहट ला भुला दे सब ग़मों को जो,
चलो सब फुलझड़ी ऐसी चलाते हैं दिवाली पर।
ख़ुशी-ग़म धूप छाया हैं कभी हँसना कभी रोना,
मायूसी छोड़ गाते-गुनगुनाते हैं दिवाली पर।
हमें इक जिंदगी मिलती मोहब्बत में ये कट जाए,
गिले-शिकवे सभी अपने भुलाते हैं दिवाली पर।
न जाने कब यहाँ जीवन की अपनी शाम हो जाए,
सभी मतभेद तज मिलते-मिलाते हैं दिवाली पर।
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं यहाँ पर यार कुछ सच्चे,
जो अपने रूठ कर बिछड़े मनाते हैं दिवाली पर।
नहीं सोना नहीं चांदी नहीं हीरा नहीं मोती,
गरीबों की दुआ थोड़ी कमाते हैं दिवाली पर।
बड़े छोटे बहुत रिश्ते हमारी ज़िन्दगी में हैं,
चलो इंसानियत को भी निभाते हैं दिवाली पर।
ज़रा सोचो यहाँ दुनिया में सब खुश हों तो कैसा हो,
किसी की ज़िन्दगी से ग़म चुराते हैं दिवाली पर।
ये जीवन एक उत्सव है बड़ी किस्मत से मिलता है,
खुदा का क़र्ज़ थोड़ा तो चुकाते हैं दिवाली पर।
- विवेक अग्रवाल 'अवि'
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ग़ज़ल - इश्क़ भी तुम ने किया (Ghazal - Ishq Bhi Tumne Kiya)
ग़ज़ल - इश्क़ भी तुम ने किया बस यूँ ही आते जाते
इश्क़ भी तुम ने किया बस यूँ ही आते जाते।
दर्द कितना है दिया हम को यूँ जाते जाते।
दोस्ती ख़ूब निभाई थी बड़े दिन हमसे,
फ़र्ज़ दुश्मन का भी बनता है निभाते जाते।
मेरे बस में तो नहीं है कि जला दूँ इनको,
ख़त जो तुमने थे लिखे उन को जलाते जाते।
मुस्कुराहट है लबों पर जो सजाई झूठी,
रोक कर हैं जो रखे अश्क़ बहाते जाते।
कैसे काटेंगे सफ़र ज़िंदगी का बिन तेरे,
आख़िरी वस्ल की यादें तो सजाते जाते।
शायर - विवेक अग्रवाल 'अवि'
सुर और संगीत - रानू जैन
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ग़ज़ल - मेरी मुहब्बत नयी नहीं है (Ghazal - Meri Muhabbat Nayi Nahin Hai)
बड़ी पुरानी है ये कहानी, मेरी मुहब्बत नयी नहीं है।
जो फाँस बन के गड़ी हुयी है, जिगर में हसरत नयी नहीं है।
कभी लिखे थे दिलों पे अपने, जो नाम इक दूसरे के हमने,
नहीं धुलेंगे वो आंसुओं से, छपी इबारत नयी नहीं है।
न तू ये जाने जगह जो मैंने, तेरे लिये थी कभी बनायी,
सजा के दिल में तुझे है पूजा, मेरी इबादत नयी नहीं है।
दवा नहीं मिल रही है इसकी, बुख़ार हमको जो हो गया है,
है आग सीने में इक पुरानी, मेरी हरारत नयी नहीं है।
जो बात उसको बता न पाये, सुना रहे हैं यहाँ सभी को,
ग़ज़ल लिखी आज फिर से 'अवि' ने, खुदा की रहमत नयी नहीं है।
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Vocal - Dr. SC Rastogi
Music & Harmonium - Mrs. Sadhna Rastogi
Tabla - Amol
Lyrics - Vivek Agarwal 'Avi'
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ग़ज़ल - सुनो तुम आत्महत्या से कभी हित हो नहीं सकता
कभी कभी जीवन से निराश हो चुके व्यक्ति आत्महत्या तक के बारे में सोचने लगते हैं जबकि यह किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। अभी कुछ दिनों पहले विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के अवसर पर मैंने एक ग़ज़ल के माध्यम से ऐसे व्यक्तियों को नकारात्मक सोच से निकल सकारात्मकता की ओर जाने का सन्देश देने का प्रयास किया गया है।
साथ ही यह भी चेष्टा रही है कि शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग कर एक सम्पूर्ण ग़ज़ल लिखी जाए जिस से हिंदी कवि भी इस विधा की ओर आकर्षित हों। आशा करता हूँ की श्रोताओं को पसंद आएगी
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प्रयाण गीत (पञ्चचामर छंद)
अजेय सैनिकों चलो, लिये तिरंग हाथ में।
समक्ष शत्रु क्या टिके, समस्त हिन्द साथ में॥
ललाट गर्व से उठा, स्वदेश भक्ति साथ है।
अशीष मात का मिला, असीम शक्ति हाथ है॥
चले चलो बढ़े चलो, कि देश है पुकारता।
सवाल आज आन का, कि आस से निहारता॥
सदैव शौर्य जीतता, कि शक्ति ही महान है।
कि वीर की वसुंधरा, यही सदा विधान है॥
चढ़ा लहू कटार से, यहाँ उतार आरती।
भले तू खंड-खंड हो, रहे अखंड भारती॥
महान मातृभूमि का, चुका सकें न ऋण कभी।
यहीं जियें यहीं मरें, सपूत मात के सभी॥
खड़े रहें डटे रहें, थकान भूख प्यास में।
स्वदेश प्रेम आपकी, बसा प्रत्येक श्वास में॥
हिमाद्रि मार्ग में खड़ा, उतंग तुंग तोड़ दो।
प्रवाहिनी जहाँ दिखे, नदी प्रवाह मोड़ दो॥
असंख्य शत्रु सामने, गिरे न स्वेद भाल से।
स्वदेश के लिए लड़ो, महा कराल काल से॥
अतीव कष्ट भी मिले, न शीश ये कभी झुके।
न लोभ मोह में फँसे, जवान ये नहीं रुके॥
अदम्य साहसी सभी, नहीं करें अधीरता।
न अस्त्र से न शस्त्र से, जयी सदैव वीरता॥
अनन्य देश प्रेम है, सदैव वो रहे डटे।
समस्त विश्व साक्ष्य है, न युद्ध से कभी हटे॥
अराति हिन्द पे चढ़ा, प्रचंड वार के लिए।
भुजा सशक्त है दिखा, उठा प्रहार के लिए॥
अक्षम्य कृत्य दुष्ट का, इसे क्षमा नहीं करो।
कि काट शीश शत्रु के, समुद्र रक्त से भरो॥
अजेय शूर वीर तू, उठा धनुष कृपाण को।
कि भेद लक्ष्य व्योम में, चला अचूक बाण को॥
समाप्त शत्रु आज हो, समस्त दम्भ को हरो।
उठा सके न शीश फिर, समूल नाश तुम करो॥
न मौत अंत वीर का, कथा समस्त जग कहे।
समान सूर्य चंद्र के, सदैव विश्व में रहे॥
न तू न मैं न ये बड़ा, बड़ा स्वदेश है सदा।
सदैव स्वाभिमान हो, स्वतंत्र राष्ट्र सर्वदा॥
प्रयाण गीत गा रहे, स्वदेश भक्ति काम है।
जवान को प्रणाम है, प्रणाम है प्रणाम है॥
स्वरचित - विवेक अग्रवाल 'अवि'
(भारतीय सेना और श्री जय शंकर प्रसाद जी को समर्पित)

श्रीकृष्ण बाल कथा (Shri Krishna Baal Katha)
हरिगीतिका छंद (२८ मात्रिक १६,१२ पर यति)
प्रथम सर्ग - श्रीकृष्ण बाल कथा
श्रीकृष्ण की सुन लो कथा तुम, आज पूरे ध्यान से।
भवसागरों से मुक्ति देती, यह कथा सम्मान से॥
झंझावतों की रात थी जब, आगमन जग में हुआ।
प्रारब्ध में जो था लिखा तय, कंस का जाना हुआ॥
गोकुल मुझे तुम ले चलो अब, हो प्रकट बोले हरी।
माया वहाँ मेरी है जन्मी, तेज से है वो भरी॥
ज्यूँ कृष्ण का आना हुआ त्यूँ, बेड़ियाँ सब खुल गयीं।
ताले लगे थे द्वार पर जो, चाभियाँ खुद लग गयीं॥
प्रहरी थे कारागार के सब, नींद में सोये हुये।
जैसे किसी माया में पड़ कर, स्वप्न में खोये हुये॥
इक टोकरी में डाल बाबा, नन्द घर को चल पड़े।
वर्षा प्रबल यूँ हो रही थी, तात चिंता में बड़े॥
कैसे करें हम पार नदिया, बाढ़ इसमें आ गयी।
जब छू लिये चरणन तिहारे, शांति यमुना पा गयी॥
फन वासुकी छतरी बना कर, वृष्टि से रक्षा किये।
उस पार बाबा आ गये तब, टोकरी सर पर लिये॥
अपने लला को साथ ले कर, नन्द बाबा से मिले।
पूरी कथा उनको सुना कर, आस की किरणें खिले॥
बाबा कहे जो भाग्य में है, अब वही होगा घटित।
है ले लिया अवतार प्रभु ने, देवताओं के सहित॥
थीं नन्द के घर माँ यशोदा, योगमाया साथ में।
दोनों खुशी से सो रही थीं, हाथ डाले हाथ में॥
वसुदेव ने सौंपा हरी को, योगमाया साथ ले।
लाला निहारे तात को जब, छोड़ कर बाबा चले॥
फिर कंस कारागार आया, योगमाया छीन ली।
पर दिव्य देवी मुस्कुराती, खिलखिलाती उड़ चली॥
बोली कि तेरा काल दुष्टे, आ गया है अब निकट।
जल्दी हरी आकर हरेंगे, विश्व के संकट विकट॥
माँ देवकी वसुदेव बाबा, जेल में ही रह गये।
पर आपके सम्बल सहारे, कष्ट सारे सह गये॥
बचपन बिताया माँ यशोदा, संग क्रीड़ा कर कई।
गोकुल निवासी धन्य होते, देख लीला नित नई॥
यूँ बालपन में ही किया था, दानवों का सामना।
संहार कर फिर कंस का की, पूर्ण सबकी कामना॥
विष-सर्प से दूषित भयी जब, जल किसी ने न पिया।
यमुना नदी में कूद कर तब, कालिया मर्दन किया॥
गिरिराज को अंगुल उठाकर, सात दिन धारण किया।
अभिमान सारा इन्द्र का यूँ, एक पल में हर लिया॥
सम्मान नारी का करें सब, सीख सबने ये लिया।
गीता सुनाकर पार्थ का भी, मार्गदर्शन कर दिया॥
अवतार ले जग को सुधारा, कम हुआ जब धर्म है।
है आपने ही ये सिखाया, श्रेष्ठ सबसे कर्म है॥
(इति-प्रथम सर्ग)
श्रद्धा सहित
विवेक अग्रवाल
(मौलिक और स्वलिखित)

ग़ज़ल - नहीं फ़ख़्र-ए-वतन उसका ये हिंदुस्तान थोड़े है (Ghazal)
लुटाते जान सैनिक ही हमारी जान थोड़े है।
बचाते अजनबी को भी कोई पहचान थोड़े है।
नहीं अहसान मानो तो समझ इक बार हम जायें,
मगर मारो जो तुम पत्थर वहाँ ईमान थोड़े है।
ख़िलाफ-ए-'मुल्क साजिश कर जो दुश्मन की ज़बाँ बोले,
नहीं फ़ख़्र-ए-वतन उसका ये हिंदुस्तान थोड़े है।
कहे भारत के टुकड़े जो वो अपना हो नहीं सकता,
पढ़ा है तीस सालों तक अभी नादान थोड़े है।
चलो मिल कर बनाते हैं वतन खुशहाल ये अपना,
सभी का घर यहाँ पर है कोई मेहमान थोड़े है।
बढे ताकत बने अव्वल हमारा मुल्क दुनिया में,
सभी की है यही मंजिल फ़क़त अरमान थोड़े है।
Lyrics - Vivek Agarwal
Music & Singer - Ranu Jain

ज़रा याद करो कुर्बानी (Zara Yaad Karo Kurbani)
बचपन से खूब सुनी हैं, दादी नानी से कहानी।
जादुई परियों के किस्से, और सुन्दर राजा रानी।
कथा मैं उनकी सुनाता, जो देश के हैं बलिदानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
आज़ाद हवा में साँसे, खुल कर हम सब ले पाये।
क्यूँकि कुछ लोग थे ऐसे, जो अपनी जान लुटाये।
उन सब की बात करूँ मैं, नहीं जिनका बना है सानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
सन सत्तावन में देखी, आज़ादी की पहली लड़ाई।
सबसे आगे जो निकली, नाम था लक्ष्मीबाई।
नारी नहीं थी अबला, वो थी झांसी की रानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
संख्या में बहुत बड़ी पर, गोरों की पलटन भागी।
नेताजी की सेना ने, गोली पर गोली दागी।
आज़ाद हिन्द सेना से, बुनियाद हिली बिरतानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
आज़ाद लड़े आखिर तक, जब दिशा घिर गयीं सारी।
जब अंतिम गोली बची तब, खुद के मस्तक में मारी।
प्रयागराज में अब भी, उनकी है सजी निशानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
लाला लाजपत जी ने, लाठी खायी थी सर पर।
माटी का जो कर्ज़ा था, सारा वो चुकाया मर कर।
सबसे आगे वो खड़े थे, सुन लो मेरी बयानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
वीर भगत बचपन से, आज़ादी के दीवाने।
फाँसी का फंदा चूमा, गये हँसते मस्ताने।
सोचो उनके बारे में, तो होती है हैरानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
जलियाँ बाग़ में कितने, लोगों ने गोली खायी।
जब लाखों घर उजड़े तब, हमने आज़ादी पायी।
कभी न पड़ने पाये, उनकी ये याद पुरानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
सावरकर के लेखों से, अंग्रेज़ थे इतना डरते।
बात बात पर उनको, गिरफ्तार वो करते।
जब रुका नहीं मतवाला, भेजा फिर काले पानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
कोमाराम ने कहा था, जल जंगल जमीं हमारा।
कितनों को उसने जगाया, देकर जोशीला नारा।
लड़ते लड़ते जां तज दी, फिर उसने भरी जवानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
गांधी नेहरू तो सुने हैं, पर खुदीराम को भूले।
ऐसे कितने ही बहादुर, यौवन में फाँसी झूले।
अंग्रेज़ों को है भगाना, ये दिल में सबने थी ठानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
ये दिन है बड़ा मुक़द्दस, चलो मिल कर गीत ये गाएँ।
भूले बिसरे वीरों को, श्रद्धा से सीस नवाएँ।
है 'अवि' की कामना छोटी, सबको ये कथा सुनानी।
ना उनको आज भुलाओ, ज़रा याद करो कुर्बानी।
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'
(आदरणीय कवि प्रदीप जी और लता जी की प्रेरणा से लिखी यह कविता लाखों अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का एक प्रयास है)
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ग़ज़ल - दिन रात मुझे याद (Ghazal - Din Raat Mujhe Yaad)
हर वक़्त यूँ तड़पा के सताया न करो तुम।
दिन भर तो मुझे नींद नहीं होती मयस्सर,
आ ख्वाब में हर रात जगाया न करो तुम।
इक वक़्त था मुस्कान हमेशा थी लबों पर,
वो वक़्त मुझे याद दिलाया न करो तुम।
लगता है तेरे दिल में कहीं कुछ तो बचा है,
जो भी है दिल में वो छुपाया न करो तुम।
इस वक़्त से बढ़कर है नहीं कुछ भी यहाँ पर,
बेकार की बातों में गँवाया न करो तुम।
माना कि तेरे दिल में नहीं इश्क़ मेरा अब,
अपना जो कभी था वो पराया न करो तुम।
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लेखन - विवेक अग्रवाल 'अवि'
संगीत और सुर - रानू जैन

शारदा स्तुति (Sharda Stuti)
शारदा स्तुति
हरिगीतिका छंद (२८ मात्रिक १६,१२ पर यति)
है हंस पर आरूढ़ माता, श्वेत वस्त्रों में सजी।
वीणा रखी है कर तिहारे, दिव्य सी सरगम बजी॥
मस्तक मुकुट चमके सुशोभित, हार पुष्पों से बना।
फल फ़ूल अर्पण है चरण में, हम करें आराधना॥
संगीत का आधार हो माँ, हर कला का श्रोत हो।
जग में प्रकाशित हो रही जो, वेद की वह ज्योत हो॥
वरदायिनी पद्मासिनि माँ, अब यही अभियान हो।
हम सब चलें सत्मार्ग पर अब, ना हमें अभिमान हो॥
माँ शारदे ये वर हमें दे, बुद्धि का विस्तार हो।
अपनी इसी पावन धरा पे, धर्म का संचार हो॥
श्रद्धा सहित
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सुर - डॉ सुभाष चंद्र रस्तोगी
लेखन - विवेक
संगीत - अमोल

आओ पर्यावरण बचायें (Let us save environment)
आओ पर्यावरण बचायें
यह प्रकृति हम से नहीं, इस प्रकृति से हम हैं।
प्रकृति सरंक्षण हेतु हम जितना भी करे कम है।
पंच तत्व बन प्रकृति ही इस तन को निर्मित करती है।
सौंदर्य सुधा की सुरभि से सबको आकर्षित करती है।
जीवनदायी प्रकृति करती है सब का पालन पोषण।
निज स्वार्थ में हम कर बैठे इस देवी का शोषण।
भूमि हमको भोजन देती पर हम इसको विष देते।
दूषित करते उन नदियों को जिनसे हम जल लेते।
प्राणदायिनी वायु तक को भी हमने शुद्ध ना छोड़ा।
जला कोयला-डीजल-कूड़ा धुआँ हर तरफ छोड़ा।
जो वृक्ष हमें सौगात में देते फल-फूल और छाया।
काट काट कर काया उनकी अपना संसार बनाया।
ऊँचे हिमशिखर हों या फिर महासागर की गहराई।
दुर्गम सुदूर स्थानों पर भी प्लास्टिक हमने पहुँचाई।
एसी-फ्रिज-उपकरण हमारे ऐसी गैसें छोड़ रहे हैँ ।
ओजोन परत जो हमें बचाती उसको ही तोड़ रहे हैँ।
मानव जाति को ईश्वर ने दिया है बुद्धि का उपहार।
सोचो ये प्रकृति ही है अपने पूरे जीवन का आधार।
आओ मिल कर यह शपथ लें एक बदलाव लायेंगे।
स्वयं भी जागरूक बनेंगे और औरों को भी जगायेंगे।
स्वरचित और मौलिक
विवेक अग्रवाल 'अवि'

ग़ज़ल - कुछ और नहीं सोचा कुछ और नहीं माँगा (Ghazal)
हर वक्त तुझे चाहा कुछ और नहीं माँगा।
दौलत से क्या होगा यदि दिल ही रहे खाली।
बस साथ रहे तेरा कुछ और नहीं माँगा।
मिलता है बड़ी किस्मत से यार यहाँ सच्चा।
मिल जाये वही हीरा कुछ और नहीं माँगा।
दीदार खुदा का हो यदि पाक नज़र अपनी।
दिल साफ़ रहे अपना कुछ और नहीं माँगा।
सब लोग बराबर हैं ना कोइ बड़ा छोटा।
ना भेद रहे थोड़ा कुछ और नहीं माँगा।
यूँ जंग नहीं होती जो प्यार यहाँ होता।
मक़सद हो अमन सबका कुछ और नहीं माँगा।
मैं तख़्त नहीं चाहूँ ना ताज मुझे भाता।
दे नूर मुझे 'अवि' का कुछ और नहीं माँगा।
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Lyrics - विवेक अग्रवाल 'अवि'
Music - रानू जैन
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मैं बस शिवा हूँ (Mein Bas Shiva Hoon)
न हूँ मैं मेधा, न बुद्धि ही मैं हूँ।
अहंकार न हूँ न चित्त ही मैं हूँ।
न नासिका में न नेत्रों में ही समाया।
न जिव्हा में स्थित न कर्ण में सुनाया।
न मैं गगन हूँ न ही धरा हूँ।
न ही हूँ अग्नि न ही हवा हूँ।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
नहीं प्राण मैं हूँ न ही पंचवायु।
नहीं पंचकोश और न ही सप्तधातु।
वाणी कहाँ बांच मुझको सकी है।
मेरी चाल कहाँ कभी भी रुकी है।
किसी के हाथों में नहीं आच्छादित।
न ही किसी और अंग से बाधित।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
नहीं गुण कोई ना ही कोई दोष मुझमें।
न करूँ प्रेम किसी को न रोष मुझमें।
लोभ मद ईर्ष्या मुझे कभी न छूते।
धर्म अर्थ काम भी मुझसे अछूते।
मैं स्वयं तो मोक्ष के भी परे हूँ।
जो सब जहाँ है वो मैं ही धरे हूँ।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
न पुण्य की इच्छा न पाप का संशय।
सुख हो या दुःख हो न मेरा ये विषय।
मन्त्र तीर्थ वेद और यज्ञ इत्यादि।
न मुझको बाँधे मैं अनंत अनादि।
न भोग न भोगी मैं सभी से भिन्न।
न ही हूँ पुलकित और न ही खिन्न।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
अजन्मा हूँ मेरा अस्तित्व है अक्षय।
मुझे न होता कभी मृत्यु का भय।
न मन में है शंका मैं हूँ अचर।
जाति न मेरी न भेद का डर।
न माता पिता न कोई भाई बंधु।
न गुरु न शिष्य मैं अनंत सिंधु।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
न आकार मेरा विकल्प न तथापि।
चेतना के रूप में मैं हूँ सर्वव्यापी।
यूँ तो समस्त इन्द्रियों से हूँ हटके।
पर सभी में मेरा प्रतिबिम्ब ही झलके।
किसी वस्तु से मैं कहाँ बँध पाया।
पर प्रत्येक वस्तु में मैं ही समाया।
जो सर्वत्र सर्वस्व आनंद व्यापक।
मैं बस शिवा हूँ उसी का संस्थापक।
(आदिगुरु श्री शंकराचार्य जी की बाल्यावस्था में लिखी निर्वाण षट्कम का अपने अल्प ज्ञान और सीमित काव्य कला में सरल हिंदी में रूपांतर करने की एक तुच्छ चेष्टा।)
गुरुदेव को नमन के साथ
विवेक
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श्रीकृष्ण स्तुति (Sri Krishna Stuti)
श्रीकृष्ण मेरे इष्ट भगवन, नित्य करता ध्यान मैं।
मुरली मनोहर श्याम सुन्दर, भक्तिरस का गान मैं॥
कोमल बदन चन्दन सजा है, भव्य यह श्रृंगार है।
कर में सजी वंशी सुनहरी, देखता संसार है॥
सम्पूर्ण जग में आप ही हो, आप से ही सब बना।
है आप पर सर्वस्व अर्पण, आप की आराधना॥
मम मात तुम तुम तात हो तुम, बन्धु तुम ही हो सखा।
प्रियतम तुझे ही मानता मैं, तुम बिना क्या है रखा॥
मनमोहना है छवि तिहारी, श्वास का आधार है।
विश्वास है मेरा यही की, मुक्ति का तू द्वार है॥
सविनय निवेदन आप से है, काज मेरे कीजिये।
मेरा समय जब पूर्ण हो तो, मोक्ष मुझको दीजिये॥
श्रद्धा सहित
विवेक अग्रवाल
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Singer - Dr. SC Rastogi
Lyrics - Vivek Agarwal
Background Music - KalRav Music
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मैंने राम को देखा है
कौन हैं राम कैसे थे राम,
कब थे राम कहाँ है राम?
अक्सर ऐसे प्रश्न उठाते,
लोगों को मैंने देखा है।
श्रद्धा-सूर्य पर संशय-बादल,
मंडराते मैंने देखा है।
है उनको बस इतना बतलाना,
मैंने राम को देखा है ।
पितृ वचन कहीं टूट ना जाये
सौतेली माँ भी रूठ ना जाये
राजसिंहासन को ठुकराकर
परिजनों को भी बहलाकर
एक क्षण में वैभव सारा छोड़
रिश्ते नातों के बंधन तोड़
कुल-देश-धर्म की मर्यादा पर
सर्वस्व लुटाते देखा है
हाँ मैंने त्याग में राम को देखा है।
केवट को बाहों में भर लेना
मित्रवत रीछ वानर की सेना
शबरी के जूठे बेरों का प्यार
गिद्धराज से पितृसम व्यवहार
गिलहरी की पीठ हाथ फिराना
समरसता का सुन्दर पाठ पढ़ाना
निज आचरण का बना उदाहरण
हर भेद मिटाते देखा है
हाँ मैंने न्याय में राम को देखा है।
श्री विष्णुरूप हैं मेरे रघुनंदन
जो करें नित महादेव का वंदन
विद्वानों के समक्ष शीश झुकाना
रात्रि भर गुरु के चरण दबाना
धनुष हाथ ले पहरा देना
घर घर जाकर भिक्षा लेना
तीनों लोकों के स्वामी होकर
सेवा करते भी देखा है
हाँ मैंने विनम्रता में राम को देखा है।
यज्ञ भंग करते दैत्य विराट
रामबाण ने दिये मस्तक काट
प्रचंड शिव धनुष का तोड़ना
जनक नंदिनी से नाता जोड़ना
पापी रावण को दे उचित दंड
की विभीषण पर कृपा अखंड
शक्ति के समुचित सद उपयोग
का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देखा है
हाँ मैंने पराक्रम में राम को देखा है।
विश्वामित्र का आना दशरथ द्वार
माँ अहिल्या का होते उद्धार
भरत लक्ष्मण का सर्वस्व अर्पण
बजरंग बली का सम्पूर्ण समर्पण
अंगद की अतुलित शक्ति
विभीषण की अन्नय भक्ति
रामेश्वरम के पावन तट पर
पत्थरों को तैरते देखा है
हाँ मैंने विश्वास में राम को देखा है।
राम ही साकार है,
और निराकार भी राम हैं।
राम में सारे गुण भरे,
हर सद्गुण में दिखते राम हैं।
राम हैं हर मंदिर में,
मनमंदिर में शोभित राम हैं।
राम से ही सृष्टि सारी,
हर कण में समाये राम हैं।
राम पिता का पावन पुरुषार्थ,
राम ही माँ की निश्छल ममता।
राम सखा के स्नेहालिंगन में,
गुरु कृपा में राम ही दिखता।
वीरों के शौर्य में राम हैं,
राम बसे हर ज्ञानी में।
परमार्थ का हर कार्य राम का,
मुझे दिखे राम हर दानी में।
जीवन पथ हो जाये दुष्कर,
तो अपने सहचर राम हैं।
जितने प्रश्न भरे हैं अंदर,
सबका उत्तर राम हैं।
राम पर यदि ध्यान दिया,
हर संशय तब मिट जायेगा।
राम के गुण जो भी अपना ले,
वही राम हो जायेगा।
राम की इस दुनिया में ऐसा होते देखा है,
मैंने राम को देखा है।
मैंने राम को देखा है।
श्रद्धा सहित - विवेक अग्रवाल

सरस्वती वंदना - आशी (Saraswati Vandana - Music by Aashi)
सरस्वती वंदना
हरिगीतिका छंद (२८ मात्रिक १६,१२ पर यति)
है हंस पर आरूढ़ माता, श्वेत वस्त्रों में सजी।
वीणा रखी है कर तिहारे, दिव्य सी सरगम बजी॥
मस्तक मुकुट चमके सुशोभित, हार पुष्पों से बना।
फल फ़ूल अर्पण है चरण में, हम करें आराधना॥
संगीत का आधार हो माँ, हर कला का श्रोत हो।
जग में प्रकाशित हो रही जो, वेद की वह ज्योत हो॥
वरदायिनी पद्मासिनि माँ, अब यही अभियान हो।
हम सब चलें सत्मार्ग पर अब, ना हमें अभिमान हो॥
देवी यही है कामना सब, लोग मिल आगे बढ़ें।
अपने सभी अंतर भुलाकर, ज्ञान की सीढ़ी चढ़ें॥
माँ शारदे ये वर हमें दे, बुद्धि का विस्तार हो।
अपनी इसी पावन धरा पे, धर्म का संचार हो॥
श्रद्धा सहित
विवेक अग्रवाल
(मौलिक और स्वलिखित)
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प्रकृति का पाठ (Lessons from Nature)
आओ बच्चों आज तुमको एक पाठ नया पढ़ाता हूँ।
प्रकृति हमको क्या सिखलाती, ये तुमको बतलाता हूँ।
देखो कैसे पत्थर खा के भी, पेड़ हमें फल देते हैं।
क्षमा-दान से बड़ा कुछ नहीं, ये हम सबसे कहते हैं।
पर्वत से सागर तक नदिया, लम्बा सफर है करती।
निज लक्ष्य तक बढ़ो निरंतर, सीख यही है मिलती।
सबका भार उठाये मस्तक पर, देखो धरती माता।
सहनशीलता का अर्थ क्या, इससे समझ में आता।
ज्वार-भाटा नित्य आता पर, सागर सीमा ना तोड़े।
सुख-दुःख में धैर्य रखें हम, मर्यादा कभी ना छोड़ें।
देखो कैसे रोज नियम से, सूरज है आता जाता।
अनुशासन का पाठ हमको, अच्छे से सिखलाता।
झंझावत कितने आयें परन्तु, पर्वत अडिग है रहता।
कठिन समय में दृढ़ रहने की बात हमसे कहता।
आसमान में स्थिर ध्रुव तारा, भटकों को राह दिखाता।
अटल इरादे अगर हमारे, सब कुछ संभव हो जाता।
सुन्दर सुरभित पुष्प यहाँ, सबको सुख पहुंचाते।
हम भी यूँ खुशियां बरसायें, ये हमको समझाते।
जैसा बीज खेत में डालो, वैसी फसल है उगती।
ये देख हम सबको, अच्छे कर्म की प्रेरणा मिलती।
भाषा गणित इतिहास कला, इन सबसे बढ़ता ज्ञान।
पर अच्छे गुण पाकर ही, एक व्यक्ति बनता महान।
प्रकृति के कण कण में भरा है, सीखों का भण्डार।
इस ज्ञान से चलो सँवारे, मिल कर अपना संसार।
स्वरचित
विवेक अग्रवाल

होली (Holi)
आओ मिल कर खेलें होली
सबसे न्यारी अपनी टोली
सभी पुराने क्लेश भुलाकर
सबसे बोलें मीठी बोली
लाल हरे और पीले नीले
देखो मेरे रंग चटकीले
भर ली मैंने नयी पिचकारी
रंग दूंगा मैं दुनिया सारी
सुबह सवेरे सोनू जागा
उसके पीछे मोनू भागा
वो छिप गया लकी सयाना
नहीं चलेगा कोई बहाना
बंद करो ये आंखमिचौली
आओ मिल कर खेलें होली
रंग लगायें गुंझिया खाएं
झूमे नाचें खुशी मनाएं
खेल कूद कर घर को आये
रगड़ रगड़ कर हम नहाये
बड़े जोर की भूख लगी अब
पूरी हलवा खायें मिल सब
होली का त्यौहार है न्यारा
बीत गया दिन कितना प्यारा
हमें उदास देख माँ बोली
फिर आएगी प्यारी होली

ग़ज़ल - तू ही बता (Ghazal - Tu Hi Bata)
ग़ज़ल - तू ही बता
क्यों हर समय यादें तेरी आती हमें तू ही बता।
सोता हूँ तो सपने तेरे मुझको दिखें तू ही बता।
सीने में हैं तूफाँ बहुत दिल है मगर खाली मेरा।
हाल-ए-जिगर जाने न तू कैसे कहें तू ही बता।
है मतलबी सारा जहाँ सोचा कि तुम होगी जुदा।
तू भी मगर खुदगर्ज है क्या हम करें तू ही बता।
छोटी सी थी मेरी खता ये बात है तुझको पता।
इतनी बड़ी दी है सजा कैसे सहें तू ही बता।
चाहूँ नहीं अपने ग़मों को इस जहाँ से बाँटना।
आँखों में हैं आँसू बहुत कैसे बहें तू ही बता।
फ़िरदौस की ख्वाहिश नहीं तेरा अगर दीदार हो।
दिल में सजे सपने तेरे कैसे हटें तू ही बता।
बन के ग़ज़ल मेरेे लबों पे आज फिर हो सज गयी।
तेरे सिवा कुछ और हम कैसे लिखें तू ही बता।
- विवेक अग्रवाल 'अवि' (सर्व अधिकार सुरक्षित)
स्वरचित व मौलिक

ग़ज़ल - सपने तेरे (Ghazal - Sapne Tere)
ग़ज़ल - सपने तेरे
जो सब कहें सपने तेरे, मुश्किल बड़े तो क्या हुआ।
तेरी रज़ा तेरा सफर, अड़चन पड़े तो क्या हुआ।
पथ पर अगर पत्थर पड़े, ठोकर लगे काँटे चुभें।
आगे बढ़ो हिम्मत करो, गिर भी गये तो क्या हुआ।
जो धुन्ध में रस्ता कहीं, खोता लगे थमना नहीं।
चलते चलो मंज़िल अगर, ना भी दिखे तो क्या हुआ।
होते हैं सच सपने सभी, कोशिश करो जी जान से।
थोड़े समय तुमने अगर, दुख भी सहे तो क्या हुआ।
हर्फ़-ए-अना तुझको कभी, छू भी न पाये ध्यान रख।
ऊँचाइयाँ तेरे कदम, छूती रहे तो क्या हुआ।
डरना नहीं डिगना नहीं, दिल में रखो ये हौसला।
जलते हुये दुनिया अगर, फब्ती कसे तो क्या हुआ।
तेरे लिये मेरी दुआ तुझ पर रहे 'अवि' का करम।
रोशन रहे जो तीरगी, तुझको मिले तो क्या हुआ।
- विवेक अग्रवाल 'अवि' (सर्व अधिकार सुरक्षित)
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शिव स्तुति (Shiv Stuti)
शिव स्तुति
स्वभाव से हैं जो सरल, त्रिनेत्र में रखें अनल।
जटाओं में भागीरथी, कण्ठ में धरें गरल॥
सोम सज्ज भाल है, वज्र वक्ष विशाल है।
जिनका नाम मात्र ही, काल का भी काल है॥
दिव्य जिनका रूप है, सौभाग्य का स्वरूप है।
कपूर कान्ति वर्ण पर, भस्म और भभूत है॥
आसन व्याघ्र चर्म है, धर्म का जो मर्म है।
जिनकी इच्छा मात्र से, घटित प्रत्येक कर्म है॥
औघड़ आदिनाथ हैँ, भूत प्रेत साथ हैँ।
क्या मनुज क्या पशु, वो तो विश्वनाथ हैँ॥
ज्ञान की जो ज्योत हैँ, कला का भी स्त्रोत हैँ।
जिनकी कृपा से देव, शक्ति से ओत प्रोत हैँ॥
सूर्य में आलोक हैँ, वेदों में जो श्लोक हैँ।
व्याप्त जो हर जीव में, जिनसे तीनों लोक हैँ॥
ज्योति का स्तम्भ हैं, सृष्टि का प्रारम्भ हैं।
अन्त का भी अन्त जो, आरम्भ का आरम्भ हैं॥
अचल अटल अमर अखंड, रौद्र रूप है प्रचंड।
भेद भाव छुआ नहीं, देवों को भी दें जो दंड॥
जो देवों में विशेष हैं, करे नमन सुरेश हैं।
स्वर्ग धरा पाताल में, एक वही अशेष हैं॥
गूँजता है ये गगन, भक्त हैं सभी मगन।
जो देवों के भी देव हैं, उन्हीं को है मेरा नमन॥
श्रद्धा सहित
विवेक अग्रवाल
(मौलिक और स्वलिखित)

मैं प्रलय हूँ (Main Pralay Hoon)
मैं प्रलय हूँ
मैं प्रलय हूँ।
अरि-मस्तकों को काट काट;
शोणित-सुशोभित उन्नत ललाट,
सर्व व्याप्त विश्व रूप विराट।
रणचण्डी का उन्मुक्त अट्टहास;
रिपुह्रदय में कर भय का निवास,
अग्नि उगले मेरी हर एक श्वास।
करता सुनिश्चित निज जय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
अविरल मेरी गति निरंतर,
पग थमे नहीं तूफानों से।
मैं थका नहीं मैं डिगा नहीं,
पथ में पड़ती चट्टानों से।
मैं भगीरथ मैं ध्रुव;
मैं अचल अटल निश्चय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
मिट गये मुझे मिटाने वाले,
मैं विद्यमान यहाँ अनन्त काल से।
मैं रुका नहीं मैं झुका नहीं,
ना तिलक मिटा कभी मेरे भाल से।
मैं विंध्य मैं नगपति;
मैं सुदृढ़ सबलता परिचय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
मैं उद्गम लोहित नदियों का,
मैं ही रक्त का महासागर।
धर्म मार्ग पर हर त्याग गौण है,
मैं करता यह सत्य उजागर।
मैं ऋषि दधीचि मैं शिवि नरेश;
मैं देता दान अभय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
राष्ट्र धर्म के पावन तप में,
सहर्ष भस्म हो वो आहुति मैं।
मातृभूमि के चिर वंदन में,
श्रद्धा से समर्पित स्तुति मैं।
संकट गहन तिमिर चीरता;
निजअग्नि में प्रज्जवलित सूर्योदय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
मैं विस्तृत अवनि से अम्बर तक,
अंतरिक्ष का मैं वक्ष चीरता।
आरम्भ तू मेरा अंत भी तेरा।
सब साक्ष्य बन देखें मेरी वीरता।
मैं महाविनाश में निहित सृजन;
मैं महाकाल मृत्यंजय हूँ,
मैं प्रलय हूँ।
स्वरचित और मौलिक
विवेक अग्रवाल